---------------------------------------------------------------------------------------------------------योग और प्याज, शामा का सर्पविष उतारना, विषूचिका (हैजी) निवारणार्थ नियमों का उल्लंघन, गुरु भक्ति की कठिन परीक्षा ।
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शामा की सर्पदंश से मुक्ति
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कथा प्रारंभ करने से पूर्व हेमाडपंत लिखते है कि जीव की तुलना पालतू तोते से की जा सकती है, क्योंकि दोनों ही बदृ है । एक शरीर में तो दूसरा पिंजड़े में । दोनों ही अपनी बद्घावस्था को श्रेयस्कर समझते है । परन्तु यदि हरिकृपा से उन्हें कोई उत्तम गुरु मिल जाय और वह उनके ज्ञानचक्षु खोलकर उन्हें बंधन मुक्त कर दे तो उनके जीवन का स्तर उच्च हो जाता है, जिसकी तुलना में पूर्व संकीर्ण स्थिति सर्वथा तुच्छ ही थी ।
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एक बार शिरडी विषूचिका के प्रकोप से दहल उठी और ग्रामवासी भयभीत हो गये । उनका पारस्परिक सम्पर्क अन्य गाँव के लोगों से प्रायः समाप्त सा हो गया । तब गाँव के पंचों ने एकत्रित होकर दो आदेश प्रसारित किये । प्रथम-लकड़ी की एक भी गाड़ी गाँव में न आने दी जाय । द्घितीय – कोई बकरे की बलि न दे । इन आदेशों का उल्लंघन करने वाले को मुखिया और पंचों द्घारा दंड दिया जायगा । बाबा तो जानते ही थे कि यह सब केवल अंधविश्वास ही है और इसी कारण उन्होंने इन हैजी के आदेशों की कोई चिंता न की । जब ये आदेशलागू थे, तभी एक लकड़ी की गाड़ी गाँव में आयी । सबको ज्ञात था कि गाँव में लगड़ी का अधिक अभाव है, फिर भीलोग उस गाड़वाले को भगाने लगे । यह समाचार कहीं बाबा के पास तक पहुँच गया । तब वे स्वयं वहाँ आये और गाड़ी वाले से गाड़ी मसजिद में ले चलने को कहा । बाबा के विरुदृ कोई चूँ—चपाट तक भीन कर सका । यथार्थ में उन्हें धूनी के लिए लकड़ियों की अत्यन्त आवश्यकता थी और इसीलिए उन्होंने वह गाड़ी मोल ले ली । एक महान अग्निहोत्री की तरह उन्होंने जीवन भर धूनी को चैतन्य रखा । बाबा की धूनी दिनरात प्रज्वलित रहती थी और इसलिए वे लकड़ियाँ एकत्रित कर रखते थे । बाबा का घर अर्थात् मसजिद सबके लिए सदैव खुली थी । उसमें किसी ताले चाभी की आवश्यकता न थी । गाँव के गरीब आदमी अपने उपयोग के लिए उसमें से लकडियाँ निकाल भी ले जाया करते थे, परन्तु बाबा ने इस पर कभी कोई आपत्ति न की । बाबा तो सम्पूर्ण विश्व को ईश्वर से ओतप्रोत देखते थे, इसलिये उनमें किसी के प्रति घृणा या शत्रुता की भावना न थी । पूर्ण विरक्त होते हुए भी उन्होंने एक साधारण गृहस्थ का-सा उदाहरण लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया ।
गुरुभक्ति की कठिन परीक्षा
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अब देखिये, दूसरे आदेश की भी बाबा ने क्या दुर्दशा की । वह आदेश लागू रहते समय कोई मसजिद में एक बकरा बलि देने को लाया । वह अत्यन्त दुर्बल, बूढ़ा और मरने ही वाला था । उस समय मालेगाँव के फकीर पीरमोहम्मद उर्फ बड़े बाबा भी उनके समीप ही खड़े थे । बाबा ने उन्हें बकरा काटकर बलि चढ़ाने को कहा । श्री साईतबाबा बड़े बाबा का अधिक आदर किया करते थे । इस कारण वे सदैव उनके दाहिनीओर ही बैठा करते थे । सबसे पहने वे ही चिलम पीते और फिर बाबा को देते, बाद में अन्य भक्तों को । जब दोपहर को भोजन परोस दिया जाता, तब बाबा बड़े बाबा को आदरपूर्वक बुलाकर अपने दाहिनी ओर बिठाते और तब सब भोजन करते । बाबा के पास जो दक्षिणा एकत्रित होती, उसमेंसे वे 50 रु. प्रतिदिन बड़े बाबा को दे दिया करते थे । जब वे लौटते तो बाबा भी उनके साथ सौ कदम जाया करते थे । उनका इतना आदर होते हुए भी जब बाबा ने उनसे बकरा काटने को कहा तो उन्होंने अस्वीकार कर स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि बलि चढ़ाना व्यर्थ ही है । तब बाबा ने शामा से बकरे की बलि के लिये कहा । वे राधाकृष्ण माई के घर जाकर एक चाकू ले आये और उसे बाबा के सामने रख दिया । राधाकृष्माई को जब कारण का पता चला तो उन्होंने चाकू वापस मँगवालिया । अब शामा दूसरा चाकू लाने के लिये गये, किन्तु बड़ी देर तक मसजिद में न लौटे । तब काकासाहेब दीक्षित की बारी आई । वह सोना सच्चा तो था, परन्तु उसको कसौटी पर कसना भी अत्यन्त आवश्यक था । बाबा ने उनसे चाकू लाकर बकरा काटने को कहा । वे साठेवाड़े से एक चाकू ले आये और बाबा की आज्ञा मिलते ही काटने को तैयार हो गये । उन्होंने पवित्र ब्राहमण-वंश में जन्म लिया था और अपने जीवन में वे बलिकृत्य जानते ही न थे । यघपि हिंसा करना निंदनीय है, फिर भी वे बकरा काटने के लिये उघत हो गये । सब लोगों को आश्चर्य था कि बड़े बाबा एक यवन होते हुए भी बकरा काटने को सहमत नहीं हैं और यह एक सनातन ब्राहमण बकरे की बलि देने की तैयारी कर रहा है । उन्होंने अपनी धोती ऊपर चढ़ा फेंटा कस लिया और चाकू लेकर हाथ ऊपर उठाकर बाबा की अन्तिम आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगे । बाबा बोले, अब विचार क्या कर रहे हो । ठीक है, मारो । जब उनका हाथ नीचे आने ही वाला था, तब बाबा बोले ठहरो, तुम कितने दुष्ट हो । ब्राहमण होकर तुम बके की बलि दे रहे हो । काकासाहेब चाकू नीचे रख कर बाबा से बोले आपकी आज्ञा ही हमारे लिये सब कुछ है, हमें अन्य आदेशों से क्या । हम तो केवल आपका ही सदैव स्मरण तथा ध्यान करते है और दिन रात आपकी आज्ञा का ही पालन किया करते है । हमें यह विचार करने की आवश्यकता नहीं कि बकरे को मारना उचित है या अनुचित । और न हम इसका कारण ही जानना चाहते है । हमारा कर्तव्य और धर्म तो निःसंकोच होकर गुरु की आज्ञा का पूर्णतः पालन करने में है । तब बाबा ने काकासाहेब से कहा कि मैं स्वयं ही बलि चढ़ाने का कार्य करुँगा । तब ऐसा निश्चित हुआ कि तकिये के पास जहाँ बहुत से फकीर बैठते है, वहाँ चलकर इसकी बलि देनी चाहिए । जब बकरा वहाँ ले जाया जा रहा था, तभी रास्ते में गिर कर वह मर गया ।
1. उत्तम
2. मध्यम और
3. साधारण
प्रथम श्रेणी के भक्त वे है, जो अपने गुरु की इच्छा पहले से ही जानकर अपना कर्तव्य मान कर सेवा करते है । द्घितीय श्रेणी के भक्त वे है, जो गुरु की आज्ञा मिलते ही उसका तुरन्त पालन करते है । तृतीय श्रेणी के भक्त वे है, जो गुरु की आज्ञा सदैव टालते हुए पग-पग पर त्रुटि किया करते है । भक्तगण यदि अपनी जागृत बुद्घि और धैर्य धारण कर दृढ़ विश्वास स्थिर करें तो निःसन्देह उनका आध्यात्मिक ध्येय उनसे अधिक दूर नहीं है । श्वासोच्ध्वास का नियंत्रण, हठ योग या अन्य कठिन साधनाओं की कोई आवश्यकता नहीं है । जब शिष्य में उपयुक्त गुणों का विकास हो जाता है और जब अग्रिम उपदेशों के लिये भूमिका तैयार हो जाती है, तभी गुरु स्वयं प्रगट होकर उसे पूर्णता की ओर ले जाते है । अगले अध्याय में बाबा के मनोरंजक हास्य-विनोद के सम्बन्ध में चर्चा करेंगे