शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....

"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम

मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे

कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे

मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे

दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे

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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।

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Sunday 10 November 2013

सत्यवादी राजा हरीशचन्द्र जी

ॐ साँई राम जी



सत्यवादी राजा हरीशचन्द्र जी

तिनी हरी चंदि प्रिथमी पति राजै कागदि कीम न पाई ||
अउगणु जानै त पुंन करे किउ किउ नेखासि बिकाई ||२||


राजा हरिचन्द्र को सत्यवती राजा कहा जाता है| वह बहुत ही दानी पुरुष था| पौराणिक ग्रन्थों में भी उसकी कथा आती है| उन में लिखा है कि वह त्रिशुंक का पुत्र था| जो भी वचन करता था उस का पालन किया करता था| सत्य, दान, कर्म तथा स्नान का पाबंद था| उसकी भूल को देवता भी ढूंढ नहीं सकते थे| एक दिन उनके पास नारद मुनि आ गए| राजा ने उनकी बहुत सेवा की| देवर्षि नारद राजा की सारी नगरी में घूमे| नारद ने देखा कि राजधानी में सभी स्त्री-पुरुष राजा का यश तथा गुणगान करते हैं| कहीं भी राजा की निंदा सुनने में न आई|

राजा हरिचन्द्र के राज भवन से निकलकर प्रभु के गुण गाते हुए नारद इन्द्र लोक में जा पहुंचे| तीनों लोकों में नारद मुनि का आदर होता था| वह त्रिकालदर्शी थे| पर यदि मन में आए तो कोई न कोई खेल रचने में भी गुरु थे| किसी से कोई ऐसी बात कहनी कि जिससे उसको भ्रम हो जाए तथा जब वह दूसरे से निपट न ले, उतनी देर आराम से न बैठे| ऐसा ही उनका आचरण था|

इन्द्र-हे मुनि वर! जरा यह तो बताओ कि मृत्यु-लोक में कैसा हाल है जीवों का, स्त्री-पुरुष कैसे रहते हैं?

नारद मुनि-मृत्यु-लोक पर धर्म-कर्म का प्रभाव पड़ रहा है| पुण्य, दान, होम यज्ञ होते हैं| स्त्री-पुरुष खुशी से रहते हैं| कोई किसी को तंग नहीं करता| अन्न, जल, दूध, घी बेअंत है| वासना का भी बहुत प्रभाव है| गायों की पालना होती है| घास बहुत होता है, वनस्पति झूमती है| ब्राह्मण सुख का जीवन व्यतीत कर रहे हैं|

इन्द्र-हे मुनि देव! ऐसे भला कैसे हो सकता है? ऐसा तो हो ही नहीं सकता| ऐसा तभी हो सकता है यदि कोई राजा भला हो, राजा के कर्मचारी भले हो| पर मृत्यु-लोक के राजा भले नहीं हो सकते, कोई न कोई कमी जरूर होती है|

नारद मुनि-ठीक है! मृत्यु-लोक पर राजा हरीशचंद्र है| वह चक्रवती राजा बन गया है| वह दान-पुण्य करता है, ब्राह्मणों को गाय देता है तथा अगर कोई जरूरत मंद आए तो उसकी जरूरत पूरी करता है, सत्यवादी राजा है| वह कभी झूठ नहीं बोलता| होम यज्ञ होते रहते हैं| राजा नेक और धर्मी होने के कारण प्रजा भी ऐसी ही है| हे इन्द्र! एक बार उसकी नगरी में जाने पर स्वर्ग का भ्रम होता है| वापिस आने को जी नहीं चाहता, सर्वकला सम्पूर्ण है| रिद्धियां-सिद्धियां उसके चरणों में हैं|

इस तरह नारद मुनि ने राजा हरीशचन्द्र की स्तुति की तो इन्द्र पहले तो हैरान हुआ तथा फिर उसके अन्दर ईर्ष्या उत्पन्न हुई| उसे सदा यही चिंता रहती थी कि कोई दूसरा उससे ज्यादा बली न हो| इन्द्र से बली वहीं हो सकता था जो बहुत ज्यादा तपस्या तथा धर्म-कर्म करता था| ऐसा करने वाला कोई एक ही होता था| इन्द्र के पास दैवी शक्तियां थीं| वह मृत्यु-लोक के भक्तों तथा धर्मी पुरुषों की भक्ति में विघ्न डालने का प्रयत्न करता| उसने अपने मन में यह फैसला कर लिया कि वह राजा की जरूर परीक्षा लेगा, क्योंकि ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई इतना सत्यवादी बन जाए|

नारद मुनि इन्द्र लोक से चले गए| इन्द्र चिंता में डूब गया| अभी वह सोच ही रहा था कि उसके महल में विशवामित्र आ गया| विश्वामित्र ने कई हजार साल तपस्या की थी तब वह मृत्यु-लोक से स्वर्ग-लोक में पहुंचा था| वह बहुत प्रभावशाली था| उसने जब इन्द्र की तरफ देखा तो चेहरे से ही उसके मन की दशा को समझ गया|

उसने पूछा-देवताओं के महांदेव! महाराज इन्द्र के चेहरे पर काला प्रकाश क्यों? चिंता के चिन्ह प्रगट हो रहे हैं, ऐसी क्या बात है जो आपके दुःख का कारण है? कौन है जो महाराज के तख्त को हिला रहा है?

विश्वामित्र की यह बात सुन कर इन्द्र ने कहा-'हे मुनि जन! अभी-अभी नारद मुनि जी यहां आए थे| वह मृत्यु-लोक से भ्रमण करके आए थे| उन्होंने बताया है कि पृथ्वी पर राजा हरीशचन्द्र ऐसा है जिसे लोग सत्यवादी कहते हैं| वह पुण्य दान और धर्म-कर्म करके बहुत आगे चला गया है|'

यह सुन कर विश्वामित्र मुस्कराया और उसने कहा कि इस छोटी-सी बात से क्यों घबरा रहे हो| जैसा चाहोगे हो जाएगा| आप के पास तो लाखों उपाय हैं| महाराज! आप की शक्ति तक किस की मजाल है कि पहुंच जाए| आप आज्ञा कीजिए, जैसे कहो हो सकता है, आप चिंता छोड़ें|

इन्द्र की चिंता दूर करने के लिए विश्वामित्र ने राजा हरीशचन्द्र की परीक्षा लेने का फैसला कर लिया तथा इन्द्र से आज्ञा ले कर पृथ्वी-लोक में पहुंच गया| साधारण ब्राह्मण के वेष में विश्वामित्र राजा हरीश चन्द्र की नगरी में गया| राज भवन के 'सिंघ पौड़' पर पहुंच कर उस ने द्वारपाल को कहा-राजा हरीश चन्द्र से कहो कि एक ब्राह्मण आपको मिलने आया है|

द्वारपाल अंदर गया| उसने राजा हरीश चन्द्र को खबर दी तो वह सिंघासन से उठा और ब्राह्मण का आदर करने के लिए बाहर आ गया| बड़े आदर से स्वागत करके उसको ऊंचे स्थान पर बिठा कर उसके चरण धो कर चरणामृत लिया और दोनों हाथ जोड़ कर प्रार्थना की-

हे मुनि जन! आप इस निर्धन के घर आए हो, आज्ञा करें कि सेवक आपकी क्या सेवा करे? किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो दास हाजिर है बस आज्ञा करने की देर है|

'हे राजन! मैं एक ब्राह्मण हूं| मेरे मन में एक इच्छा है कि मैं चार महीने राज करूं| आप सत्यवादी हैं, आप का यश त्रिलोक में हो रहा है| क्या इस ब्राह्मण की यह इच्छा पूरी हो सकती है|' ब्राह्मण ने कहा|

सत्यवादी राजा हरीश चन्द्र ने जब यह सुना तो उसको चाव चढ़ गया| उसका रोम-रोम झूमने लगा और उसने दोनों हाथ जोड़ कर प्रार्थना की-'जैसे आप की इच्छा है, वैसे ही होगा| अपना राज मैं चार महीने के लिए दान करता हूं|'

यह सुन कर विश्वामित्र का हृदय कांप गया| उसको यह आशा नहीं थी कि कोई राज भी दान कर सकता है| राज दान करने का भाव है कि जीवन के सारे सुखों का त्याग करना था| उसने राजा की तरफ देखा, पर इन्द्र की इच्छा पूरी करने के लिए वह साहसी होका बोला -

चलो ठीक है| आपने राज तो सारा दान कर दिया, पर बड़ी जल्दबाजी की है| मैं ब्राह्मण हूं, ब्राह्मण को दक्षिणा देना तो आवश्यक होता है, मर्यादा है|

राजा हरीश चन्द्र-सत्य है महाराज! दक्षिणा देनी चाहिए| मैं अभी खजाने में से मोहरें ला कर आपको दक्षिणा देता हूं|'

विश्वामित्र-'खजाना तो आप दान कर बैठे हो, उस पर आपका अब कोई अधिकार नहीं है| राज की सब वस्तुएं अब आपकी नही रही| यहां तक कि आपके वस्त्र, आभूषण, हीरे लाल आदि सब राज के हैं| इन पर अब आपका कोई अधिकार नहीं|

राजा हरीश चन्द्र-'ठीक है| दास भूल गया था| आप के दर्शनों की खुशी में कुछ याद नहीं रहा, मुझे कुछ समय दीजिए|'

विश्वामित्र-'कितना समय?'

राजा हरीश चन्द्र - 'सिर्फ एक महीना| एक महीने में मैं आपकी दक्षिणा दे दूंगा|'

विश्वामित्र-'चलो ठीक है| एक महीने तक मेरी दक्षिणा दे दी जाए| नहीं तो बदनामी होगी कि राजा हरीश चन्द्र सत्यवादी नहीं है| यह भी आज्ञा है कि सुबह होने से पहले मेरे राज्य की सीमा से बाहर चले जाओ| आप महल में नहीं रह सकते| ऐसा करना होगा यह जरूरी है|

राजा हरीशचन्द्र ने शाही वस्त्र उतार दिए| बिल्कुल साधारण वस्त्र पहन कर पुत्र एवं रानी को साथ लेकर राज्य की सीमा से बाहर चला गया| प्रजा रोती कुरलाती रह गई लेकिन राजा हरीशचन्द्र के माथे पर बिल्कुल भी शिकन तक न पड़ी, न ही चिंता के चिन्ह प्रगट हुए| वह अपने वचन पर अडिग रहा| साधुओं की तरह तीनों राज्य की सीमा से बाहर बनारस कांशी नगरी की ओर चल दिए| मार्ग में भूख ने सताया तो कंदमूल खाकर निर्वाह किया| राजा तो न डोला लेकिन रानी और पुत्र घबरा गए| उनको मूल बात का पता नहीं था|

चलते-चलते राजा-रानी कांशी नगरी में पहुंच गए| मार्ग में उनको बहुत कष्ट झेलने पड़े| पांवों में फफोले पड़ गए| वह दुखी होकर पहुंचे पर दुःख अनुभव न किया|

राजा हरीश चन्द्र चूने की भट्ठी पर मजदूरी करने लग गया| उसने अपने शरीर की चिंता न की| उसने कठिन परिश्रम करके भोजन खाना पसंद किया| क्योंकि अपने हाथ से परिश्रम करना धर्म है और मांग कर खाना पाप है| ऐसा वही मनुष्य करता है जो मेहनत पर भरोसा रखता है| राजा परिश्रम करके जो भी लाता उससे खाने का सहारा हो जाता| लेकिन ब्राह्मण की दक्षिणा के लिए पैसे इकट्ठे न कर पाता| इस प्रकार 25 दिन बीत गए| राजा के लिए अति कष्ट के दिन आ गए, क्योंकि विश्वामित्र और देवराज इन्द्र राजा हरीशचन्द्र को नीचा दिखाना चाहते थे| उन्होंने राजा के सत्यवादी अटल भरोसे को गिराना था|

ब्राह्मण के रूप में विश्वामित्र आ गए और क्रोधित होकर राजा हरीशचन्द्र से बोले-'हे हरीशचन्द्र! आप तो सत्यवादी हैं| आप का यह धर्म नहीं कि आप धर्म की मर्यादा पूरी न करो, मेरी दक्षिणा दीजिए!'

राजा हरीशचन्द्र ने विश्वामित्र से क्षमा मांगी| क्षमा मांगने के बाद राजा ने फैसला किया कि वह स्वयं को तथा अपनी रानी को बेच देगा तथा जो मिलेगा वह ब्राह्मण को दे दूंगा, पर यह बात कतई नहीं सुनूंगा कि राजा हरीशचन्द्र झूठे हैं| वह सत्यवादी था| यह सोच कर उसने कांशी की गलियों में आवाज़ दी - 'कोई खरीद ले', 'कोई खरीद ले', 'हम बिकाऊ हैं|' इस तरह ही आवाज़ देते रहे| सुनने वाले लोग हैरान थे और मंदबुद्धि वाले उनकी हंसी उड़ा रहे थे|

बाजार में कई लोगों ने उनकी सहायता करनी चाही, पर राजा ने दान या सहायता लेना स्वीकार न किया| अन्त में एक ब्राहमण ने अपनी ब्राह्मणी के लिए दासी के तौर में रानी को खरीद लिया और राजा को पैसे दे दिए| रानी ने ब्राह्मणी के आगे दो शर्तें रखीं| एक तो पराए मर्द से न बोलना, दूसरा किसी मर्द की जूठन न खाना| ब्राह्मणी ने स्वीकार कर लिया तथा रानी अपने पुत्र को लेकर ब्राह्मण के घर चली गई|

रानी के बिक जाने के बाद राजा को शहर की श्मशान घाट के रक्षक चण्डाल ने खरीद लिया| राजा को यह कार्य सौंपा गया कि वह श्मशान घाट में रुपए लिए बिना कोई मुर्दा न जलने दे और रखवाली करे| राजा रात-दिन वहां रहने को तैयार हो गया और फिर ब्राह्मण को पूरी दक्षिणा दे दी| विश्वामित्र और इन्द्र का यह साहस न हुआ कि वह राजा हरीशचन्द्र को यह कह सके कि वह झूठा है या अपने वचन से फिर जाता है|

विश्वामित्र और इन्द्र जब हार गए तो उन्होंने अपनी हार मानने से पहले राजा और रानी की एक और कड़ी परीक्षा लेनी चाहिए| इसके लिए उन्होंने अपनी दैवी शक्ति का प्रयोग करके राजा की परीक्षा ली|

राजा और रानी के पुत्र का नाम रोहतास था| वह खेलता रहता और कभी-कभी अपनी माता के काम में हाथ भी बंटाता| विश्वामित्र और इन्द्र ने अपनी दैवी शक्ति से राजा और रानी के पुत्र को सांप से डंसवाया| बच्चा उसी क्षण प्राण त्याग गया| अपने पुत्र की मृत्यु को देख कर रानी व्याकुल हो उठी| उसका रोना धरती और आकाश में गूंजने लगा| रानी ने मिन्नतें करके अपने पुत्र के कफन और उसके संस्कार के लिए ब्राह्मण से सहायता मांगी, पर इन्द्र और विश्वामित्र ने उसके मन पर ऐसा प्रभाव डाला कि उन्होंने न दो गज कपड़ा दिया और न ही कोई पैसा दिया| रानी ने अपनी धोती का आधा चीर फाड़ कर पुत्र को लपेट लिया और श्मशान घाट की ओर ले गई|

लेकिन राजा हरीशचन्द्र ने रुपए लिए बिना रानी को श्मशान घाट में दाखिल न होने दिया और न ही अपने पुत्र का संस्कार किया| उसने अपने मालिक के साथ धोखा न किया| रानी रोती रही| वह बैठी-बैठी ऐसी बेहोश हुई कि उसको होश न रही|

संयोग से एक और घटना घटी| वह यह कि चोरों ने कांशी के राजा के महल में से चोरी की| उन्होंने यह कामना की थी अगर माल मिलेगा तो श्मशान घाट के किसी मुर्दे को चढ़ावा देंगे| वे चोर जब श्मशान घात पहुंचे तो आगे रानी बैठी थी| उसके पास मुर्दा देखकर वे रानी के गले में सोने का हार डाल कर चले गए|

चोरी की जांच-पड़ताल करते हुए सिपाही जब आगे आए तो श्मशान घाट में उन्होंने रानी के गले में सोने का शाही हार पड़ा देखा| उन्होंने रानी को उसी समय पकड़ लिया| रानी ने रो-रो कर बहुत कहा कि वह निर्दोष है, पर किसी ने एक न सुनी| उसके पुत्र रोहतास को वहीं पर छोड़ कर सिपाही रानी को कांशी के राजा के पास ले गए| राजा ने उसे चोरी के अपराध में मृत्यु दण्ड का हुक्म दे दिया| मरने के लिए रानी फिर श्मशान घाट पहुंच गई| उसका कत्ल भी राजा हरीशचन्द्र ने करना था, जो चण्डाल का सेवक था|

विश्वामित्र ने भयानक ही खेल रचा था| पुत्र रोहतास को मार दिया, रानी पर चोरी का दोष लगा कर उसका कत्ल करवाने के लिए कत्लगाह में ले आया| कत्ल करने वाला भी राजा हरीशचन्द्र था, जिसने अपने राज्य में एक चींटी को भी नहीं मारा था| ऐसी लीला और भयानकता देख कर विष्णु और पारब्रह्म जैसे महाकाल देवता भी घबरा गए, पर राजा हरीशचन्द्र अडिग रहा| वह अपने फर्ज पर खरा उतरा| उसने अपनी रानी को मरने के लिए तैयार होने को कहा, ताकि वह उसे मार कर राजा के हुक्म की पालना कर सके| उस समय कत्लगाह और श्मशान घाट में वह स्वयं था और साथ में उसकी प्यारी रानी और मृत पुत्र| बाकी सन्नाटा और अकेलापन था|

'तैयार हो जाओ'! यह कह कर राजा हरीशचन्द्र ने तलवार वाला हाथ रानी को मरने के लिए ऊपर उठाया| हाथ को ऊंचा करके जब वार करने लगा तो उस समय अद्भुत ही चमत्कार हुआ| उसी समय किसी अनदेखी शक्ति ने उसके हाथ पकड़ लिए और कहा - "धन्य हो तुम राजा हरीशचन्द्र सत्यवादी!" इस आवाज़ के साथ ही उसके हाथ से तलवार नीचे गिर गई, उसने आश्चर्य से देखा कि वह एक श्मशान घाट में नहीं बल्कि एक बैग में खड़ा है, जहां विभिन्न प्रकार के फूल खिले हैं| उसके वस्त्र भी चण्डालों वाले नहीं थे, उसने अपनी आंखें मल कर देखा तो सामने भगवान खड़े थे| विश्वामित्र और इन्द्र भी निकट खड़े थे| पर वह ब्राह्मण कहीं ही नजर नहीं आ रहा था|

राजा हरीशचन्द्र उसी पल भगवान के चरणों में झुक गया| रानी ने भी आगे होकर सब को प्रणाम किया| उस समय भगवान ने वचन किया - 'राजा हरीशचन्द्र! सत्य ही सत्यवादी है| मांग, जो कुछ भी मांगोगे वही मिलेगा|

इसके साथ ही विश्वामित्र ने सारी कथा सुना दी तथा राजा रानी के पुत्र रोहतास को हंसते मुस्कराते हुए दोनों के पास पेश किया| सारी कथा सुन कर राजा हरीशचन्द्र ने भगवान, इन्द्र तथा विश्वामित्र को प्रणाम किया और कहा-'अपनी लीला को तो आप ही जाने महाराज!'

जब भगवान ने बहुत जोर दिया तो राजा हरीशचन्द्र ने यह वर मांगा - 'प्रभु! मेरी यही इच्छा है कि मैं सारी नगरी सहित स्वर्गपुरी को जाऊं|'

'तथास्तु' कह कर सभी देवता लुप्त हो गए| राजा, रानी अपने पुत्र सहित अपनी नगरी में आ गए| सारी प्रजा ने खुशी मनाई|

कहते हैं राजा कुछ समय राज करता रहा तथा एक समय ऐसा आया जब सारी नगरी सहित राजा स्वर्गलोक को चल पड़ा| जब वह बैकुण्ठ धाम को जा रहा था| तो जानवर, पक्षी तथा पशु आदि साथ थे| यह देखकर राजा को अभिमान हो गया| गधा हींगा-राजा ही है, जिसकी नगरी भी स्वर्ग को जा रही है| उसी समय नगरी जाती-जाती धरती व स्वर्ग के बीच ब्रह्मांड में रुक गई| उसका नाम हरिचंद उरी है| गुरुबाणी में आता है -

हरिचंद उरी चित भ्रमु सखीए म्रिग त्रिसना द्रुम छाइआ ||
चंचलि संगि न चालती सखीए अंति तजि जावत माइआ ||

इस कथा का परमार्थ यह है कि किसी क्षण भी सत्य को हाथ से नहीं छोड़ना चाहिए तथा न ही अभिमान करना चाहिए| जो सत्यवादी बने रहते है, उनकी नैया पार होती है|

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बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

Word Meaning of the Gayatri Mantra

ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe

these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation

धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"

dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God


भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।


Simply :

तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।


The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.