शिर्डी के साँई बाबा जी की समाधी और बूटी वाड़ा मंदिर में दर्शनों एंव आरतियों का समय....

"ॐ श्री साँई राम जी
समाधी मंदिर के रोज़ाना के कार्यक्रम

मंदिर के कपाट खुलने का समय प्रात: 4:00 बजे

कांकड़ आरती प्रात: 4:30 बजे

मंगल स्नान प्रात: 5:00 बजे
छोटी आरती प्रात: 5:40 बजे

दर्शन प्रारम्भ प्रात: 6:00 बजे
अभिषेक प्रात: 9:00 बजे
मध्यान आरती दोपहर: 12:00 बजे
धूप आरती साँयकाल: 5:45 बजे
शेज आरती रात्री काल: 10:30 बजे

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निर्देशित आरतियों के समय से आधा घंटा पह्ले से ले कर आधा घंटा बाद तक दर्शनों की कतारे रोक ली जाती है। यदि आप दर्शनों के लिये जा रहे है तो इन समयों को ध्यान में रखें।

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Tuesday 19 November 2013

भक्त अम्ब्रीक जी

ॐ साँई राम जी


भक्त अम्ब्रीक जी

अंबरीक मुहि वरत है राति पई दुरबासा आइआ|
भीड़ा ओस उपारना उह उठ नहावण नदी सिधाइआ|
चरणोदक लै पोखिआ ओह सराप देण नो धाइआ|
चक्र सुदरशन काल रूप होई भिहांवल गरब गवाइआ|
ब्राहमण भंना जीउ लै रख न हंघन देव सबाइआ|
इन्द्र लोक शिव लोक तज ब्रहम लोक बैकुंठ तजाइआ|
देवतिआं भगवान सण सिख देई सभना समझाइआ|
आई पइआ सरणागती मरीदा अंबरीक छुडाइआ|
भगत वछलु जग बिरद सदाइआ|४|

हे भगत जनो! भाई गुरदास जी के कथन अनुसार अम्ब्रीक भी एक महान भक्त हुआ है| इनकी महिमा भी भक्तों में बेअंत है| आप को दुरबाशा ऋषि श्राप देने लगे थे लेकिन स्वयं ही दुरबाशा ऋषि राजा अम्ब्रीक के चरणों में गिर गए| ऐसा था वह भक्त|

भक्त अम्ब्रीक पहले दक्षिण भारत का राजा था और वासुदेव अथवा श्री कृष्ण भक्त था| यह माया में उदासी भक्त था| इनके पिता का नाम भाग था| वह भी राजा था| जब यह युवा हुआ तो राजसिंघासन पर आसीन हुआ| राजा साधू-संतों की अत्यंत सेवा किया करता था और आए गए जरूरत मंदों की सहायता करता था|

राजा अम्ब्रीक में बहुत सारे गुण विद्यमान थे| वह अपनी सारी इन्द्रियों को वश में रखता था| वह प्रत्येक व्यक्ति को एक आंख से ही देखता और हर निर्धन, धनी, सन्त और भिक्षुक का ध्यान रखता| बुद्धि से सोच-विचार कर जरूरत मंदों की सेवा करता जितनी उनको आवश्यकता होती| वह भंडारा करके अपने हाथों से प्रसाद श्रद्धालुओं में बांटता| वह प्रतिदिन राम का सिमरन करता तथा नंगे पांव चलकर तीर्थ यात्रा के लिए जाता और कानों से सत्संग का उपदेश सुनता|

राजा अम्ब्रीक ऐसा त्यागी हो गया कि वह राज भवन, कोष, रानियां, घोड़े-हाथी किसी वस्तु पर अपना अधिकार नहीं समझता था| वह सब वस्तुएं प्रजा एवं परमात्मा की मानता था| एकादशी के व्रत रखता एवं पाठ-पूजा में सदा मग्न रहता| इस तरह राजा अम्ब्रीक को जीवन व्यतीत करते हुए कई वर्ष बीत गए|

एक वर्ष श्री कृष्ण जी की भक्ति की प्रेम मस्ती तथा श्रद्धा भावना में लीन होकर उसने प्रतिज्ञा की कि वह हर वर्ष एकादशियां रखेगा| तीन दिन निर्जला व्रत और मथुरा-वृंदावन में जाकर यज्ञ करके दान पुण्य भी देगा| उसने ऐसी प्रतिज्ञा कर ली| अम्ब्रीक एक आशावादी राजा था| उसने भरोसे में सभी बातें पूरी कर लीं और मंत्रियों सहित मथुरा-वृंदावन में पहुंच गया| मथुरा और वृंदावन में उसने यमुना स्नान करके यज्ञ लगाया| ब्राह्मणों को उपहार एवं दान दिया| वस्त्र तथा अन्न के अलावा सोने के सींगों वाली गऊएं भेंट में दान कीं| कई स्थानों पर पुराणों में लिखा है कि राजा अम्ब्रीक ने करोड़ों गाएं दान कीं| अर्थात् ढ़ेर सारा दान पुण्य किया|

ऐसा समय आ गया कि ब्राहमण छत्तीस प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खा कर तथा दान-दक्षिणा लेकर कृतार्थ होकर घर को विदा हो गए तो राजा को आज्ञा मिली कि वह अपना व्रत खोल ले| जब राजा ने अपना व्रत खोला तो वह खुशी-खुशी इच्छा पूर्ण होने पर स्वयं ही राजभवन को चल पड़ा|

राजा राज भवन में अभी पहुंचा भी नहीं था कि उसे मार्ग में दुरबाशा ऋषि आ मिले| राजा ने उन्हें झुककर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनती की|

'हे शिरोमणि मुनिवर! क्या आप राजभवन में भोजन करेंगे| यज्ञ का भोजन लेकर तृप्त होकर निर्धन राजा अम्ब्रीक को कृतार्थ करें|'

'जैसी राजन की इच्छा! भोजन का निमंत्रण स्वीकार करता हूं लेकिन यमुना में स्नान करने के बाद|'

ऋषि दुरबाशा ने उत्तर दिया|

यह कहकर ऋषि चल पड़ा| उसने मन में अनित्य धारण किया था| वह दरअसल राजा अम्ब्रीक को मोह-माया के जाल में फंसाने हेतु आया था| वैसे भी दुरबाशा ऋषि मन का क्रोधी एवं छोटी-छोटी बातों पर श्राप दे दिया करता था| इसके श्राप देने से कितनों को ही नुक्सान पहुंचा, वह बड़े प्रसिद्ध थे|

निमंत्रण देकर प्रसन्नचित राजा अम्ब्रीक अपने राजमहल में चला आया और ऋषि दुरबाशा का इंतजार करने लग गया| द्वाद्वशी का समय भी बीतने के निकट था लेकिन ऋषि दुरबाशा न आया| पंडितों ने आग्रह किया कि राजन! आप व्रत खोल ले लेकिन अम्ब्रीक यही उत्तर देता रहा-'नहीं'! एक अतिथि के भूखे रहने से पहले मेरा व्रत खोलना ठीक नहीं|

ऋषि दुरबाशा पूजा-पाठ में लीन हो गया| वह जान-बूझकर ही देर तक न पहुंचा| जब ऋषि न आया तो ब्राह्मणों ने चरणामृत पीला कर व्रत खुलवा दिया और कहा कि चरणामृत अन्न नहीं|

ऋषि दुरबाशा समय पाकर राजा अम्ब्रीक के राज भवन में उपस्थित हुआ| उसने योग विद्या से अनुभव कर लिया कि राजा अम्ब्रीक ने व्रत खोल लिया है| उसे गुस्से करने का बहाना मिला गया| ऋषि दुरबाशा ने अम्ब्रीक को अपशब्द बोलने शुरू कर दिए| उसने कहा कि एक अतिथि को भोजन पान करवाए बिना आपने व्रत खोल कर शास्त्र मर्यादा का उल्लंघन किया है| आपको क्षमा नहीं किया जाएगा|

ऋषि दुरबाशा ने आग बबूला होकर कहा-चण्डाल! अधर्मी! मैं तुम्हें श्राप देकर भस्म कर दूंगा| महांमुनि क्रोध में आकर बुरा-भला कहता गया|

राजा अम्ब्रीक उनकी चुपचाप सुनता रहा| उसने उनकी किसी बात का बुरा नहीं मनाया और खामोश खड़ा रहा| राजा का हौंसला देखकर ऋषि का मन डोल गया लेकिन क्रोध वश होकर उसने कोई बात न की| जब दुरबाशा ऋषि अपशब्द कहकर शांत हुए तो राजा अम्ब्रीक ने हाथ जोड़कर विनती की-हे महामुनि जी! जैसे पूजनीय ब्राह्मणों ने आज्ञा की, वैसे ही मैंने व्रत खोला| आपकी हम राह देखते रहे| उधर से तिथि बीत रही थी| अगर भूल गई है तो भक्त को क्षमा करें| जीव भूल कर बैठता है| आप तो महा कृपालु धैर्यवान मुनि हैं| दया करें! कृपा करें! कुछ जीवन को रोशनी प्रदान करें| मैं श्राप लेने जीवन में नहीं आया| जीव कल्याण की इच्छा पूर्ण करने के लिए पूजा की है|

लेकिन इन बातों से ऋषि दुरबाशा का क्रोध शांत न हुआ| वह और तेज हो गया जैसे वह धर्मी राजा को तबाह करने के इरादा से ही आया हो| उसने अपने क्रोध को और चमकाया तथा क्रोध में आकर दुरबाशा ने अपने बालों की एक लट उखाड़ी| उस लट को जोर से हाथों में मलकर योग बल द्वारा एक भयानक चुड़ैल पैदा की और उसके हाथ में एक तलवार थमा दी जो बिजली की तरह चमक रही थी|

उस चुड़ैल को देखकर ब्राह्मण, माननीय लोग और राजभवन के सारे व्यक्ति डर गए| अधिकतर ने अपनी आंखें बंद कर लीं लेकिन धर्मनिष्ठ और भक्ति भाव वाला राजा अम्ब्रीक न डगमगाया और न ही डरा, वह शांत ही खड़ा रहा|

जैसे ही चुड़ैल धर्मनिष्ठ राजा अम्ब्रीक पर हमला करने लगी तो राजा के द्वार के आगे जो भगवान का सुदर्शन चक्र था, वह घूमने लगा| उसने पहले चुड़ैल का बाजू काट दिया और उसके बाद उसका सिर काट कर उसका वध कर दिया| वह चक्र फिर दुरभाशा ऋषि की तरफ हो गया| आगे-आगे दुरभाशा ऋषि तथा पीछे-पीछे सुदर्शन चक्र, दोनों देव लोक में जा पहुंचे लेकिन फिर भी शांति न आई| देवराज इन्द्र भी ऋषि की रक्षा न कर सका|

दुरबाशा बहुत अहंकारी ऋषि था| वह सदा साधू-संतों, भक्त जनों और अबला देवियों को क्रोध में आकर श्राप देता रहता था| उसने शकुंतला जैसी देवी को भी श्राप देकर अत्यंत दुखी किया था| इसलिए ईश्वर ने उसके अहंकार को तोड़ने के लिए ऐसी लीला रची|

भयभीत दुरबाशा ऋषि को देवताओं ने समझाया कि राजा अम्ब्रीक के अलावा आपका किसी ने कल्याण नहीं करना और आप मारे जाएंगे| परमात्मा उसके अहंकार को शांत करने के लिए ही यह यत्न कर रहा था| उसने तप किया, पर तप करने से वह अहंकारी हो गया|

दुरबाशा परलोक और देवलोक से फिर दौड़ पड़ा| वह पुन: राजा अम्ब्रीक की नगरी में आया और अम्ब्रीक के पांव पकड़ लिए| उसने मिन्नतें की कि हे भगवान रूप राजा अम्ब्रीक! मुझे बचाएं! मैं आगे से किसी साधू-संत को परेशान नहीं करुंगा| दया करें! मेरी भूल माफ करें!

जब दुरबाशा ऋषि ने ऐसी मिन्नतें की तो राजा अम्ब्रीक को उस पर दया आ गई| उसने दुरबाशा की दयनीय दशा देखी तो वह आंसू बह रहा था| राजा को उसकी दशा पर तरस आ गया| राजा अम्ब्रीक ने हाथ जोड़कर ईश्वर का सिमरन किया| प्रभु! दया करें, प्रत्येक प्राणी भूल करता रहता है| उसकी भूलों को माफ करना आपका ही धर्म है| हे दाता! आप कृपा करें! मेहर करें! राजा अम्ब्रीक ने ऐसी विनती करके जब सुदर्शन चक्र की तरफ संकेत किया तो वह अपने स्थान पर स्थिर हो गया| दुरबाशा के प्राणों में प्राण आए| सात सागरों का जल पीने वाला दुरबाशा ऋषि धैर्यवान राजा अम्ब्रीक से पराजित हो गया| उससे क्षमा मांगकर वह अपने राह चल दिया| इस प्रकार राजा अम्ब्रीक जो बड़ा प्रतापी था, संसार में यश कमा कर गया तथा भवजल से पार होकर प्रभु चरणों में लिवलीन होकर उनका स्वरूप हो गया| कोई भेदभाव नहीं रहा| भाई गुरदास जी के वचनों के अनुसार भक्त के ऊपर परमात्मा ने कृपा की जिससे भक्त अम्ब्रीक ने संसार से मोक्ष प्राप्त किया|

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बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः॒ स्वः॒
तत्स॑वितुर्वरे॑ण्यम्
भ॒र्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

Word Meaning of the Gayatri Mantra

ॐ Aum = Brahma ;
भूर् bhoor = the earth;
भुवः bhuwah = bhuvarloka, the air (vaayu-maNdal)
स्वः swaha = svarga, heaven;
तत् tat = that ;
सवितुर् savitur = Sun, God;
वरेण्यम् varenyam = adopt(able), follow;
भर्गो bhargo = energy (sin destroying power);
देवस्य devasya = of the deity;
धीमहि dheemahi = meditate or imbibe

these first nine words describe the glory of Goddheemahi = may imbibe ; pertains to meditation

धियो dhiyo = mind, the intellect;
यो yo = Who (God);
नः nah = our ;
प्रचोदयात prachodayat = inspire, awaken!"

dhiyo yo naha prachodayat" is a prayer to God


भू:, भुव: और स्व: के उस वरण करने योग्य (सूर्य) देवता,,, की (बुराईयों का नाश करने वाली) शक्तियों (देवता की) का ध्यान करें (करते हैं),,, वह (जो) हमारी बुद्धि को प्रेरित/जाग्रत करे (करेगा/करता है)।


Simply :

तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की शक्तियों का ध्यान करते हैं, वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।


The God (Sun) of the Earth, Atmosphere and Space, who is to be followed, we meditate on his power, (may) He inspire(s) our intellect.